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बचपन
गिल्ली डंडा खेलते बच्चो की किलकारियों
से गूँजती वो मैदान न जाने कब सुनी हो गयी!
बरसात की बारिस से बढ़ते बाढ़ से आये
नदियों में बहती नाव न जाने कहा डूब गयीं!
ठंडी में अगेठे को घेरकर दादी नानी की वो कहानिया
सुनने की तो जैसे आज रिवाज ही खत्म हो गयी!
गर्मी की दोपहर तेज़ धूप में उस आम के पेड़ के नींचे खड़े होकर
मैन इसे पहले देखा है ये मेरा आम है सुने तो जैसे वर्षो बीत गयी!
कुलदीप पटेल
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